Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम मुंशी प्रेमचंद


उपसंहार...

माया– (सुक्खू चौधरी से) तुम्हारी खेती तो सब मजदूरों से ही होती होगी? तुम्हें भजन-भाव से कहाँ छुट्टी?

सुक्खू– (हंसकर) भैया, मुझे अब खेती-बारी करके क्या करना है। अब तो यही अभिलाषा है कि भगवन-भजन करते-करते यहाँ से सिधार जाऊँ। मैंने अपने चालीसों बीघे उन बेचारों को दे दिये हैं जिनके हिस्से में कुछ न पड़ा था। इस तरह सात-आठ घर जो पहले मजूरी करते थे और बेगार के मारे मजूरी भी न करने पाते थे, अब भले आदमी हो गये। मेरा अपना निर्वाह भिक्षा से हो जाता है। हाँ, इच्छापूर्ण भिक्षा यहीं मिल जाती है, किसी दूसरे गाँव में पेट के लिए नहीं जाना पड़ता है। दो-चार साधु-संत नित्य ही आते रहते हैं। उसी भिक्षा में उनका सत्कार भी हो जाता है।

माया– आज बिसेसर साह नहीं दिखायी देते।

सुक्खू– किसी काम से गये होंगे वह भी अब पहले से मजे में हैं। दूकान बहुत बढ़ा दी है, लेन-देन कम करते हैं। पहले रुपये में आने से कम ब्याज न लेते थे और करते क्या? कितने ही असामियों से कौड़ी वसूल न होती थी। रुपये मारे पड़ते थे। उसकी कसर ब्याज से निकालते थे। अब रुपये सैकड़ों ब्याज देते हैं। किसी के यहाँ रुपये डूबने का डर नहीं है। दुकान भी अच्छी चलती है। लस्करों में पहले दिवाला निकल जाता था। अब एक तो गाँव का बल है, कोई रोब नहीं जमा सकता और जो कुछ थोड़ा बहुत घाटा हुआ भी तो गाँववाले पूरा कर देते हैं।

इतने में बलराज रेशमी साफा बाँधे, मिर्जई, पहने, घोड़े पर सवार आता दिखायी दिया। मायाशंकर को देखते ही बेधड़क घोड़े पर से कूद पड़ा और उनके चरण स्पर्श किये। वह अब जिला-सभा का सदस्य था। उसी के जल्से से लौटा आ रहा था।

माया ने मुस्करा कर पूछा– कहिये मेम्बर साहब क्या खबर है?

बलराज– हुजूर की दुआ से अच्छी तरह हूँ। आप तो मजे में है? बोर्ड के जल्से में गया था। बहस छिड़ गयी, वहीं चिराग जल गया।

माया– आज बोर्ड में क्या था।

बलराज– यही बेगार का प्रश्न छिड़ा हुआ था। खूब गर्मागर्म बहस हुई गयी। मेरा प्रस्ताव था कि जिले का कोई हाकिम देहात में जाकर गाँववालों से किसी तरह की खिदमत का काम न ले– पानी भरना, घास छीलना, झाड़ू लगाना। जो रसद दरकार हो वह गाँव के मुखिया से कह दी जाय और बाजार भाव से उसी दम दाम चुका दिया जाय। इस पर दोनों तहसीलदार और कई हुक्काम बहुत भन्नाये। कहने लगे, इससे सरकारी काम में बड़ा हर्ज होगा। मैंने भी जी खोलकर जो कुछ कहते बना, कहा। सरकारी काम प्रजा को कष्ट देकर और उनका अपमान करके नहीं होना चाहिए। हर्ज होता है तो हो। दिल्लगी यह है कि कई ज़मींदार भी हुक्काम के पक्ष में थे। मैंने उन लोगों की खूब खबर ली। अन्त में मेरा प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। देखें जिलाधीश क्या फैसला करते हैं। मेरा एक प्रस्ताव यह भी था कि निर्खनामा लिखने के लिए एक सब-कमेटी बनायी जाय जिसमें अधिकांश व्यापारी लोग हों। यह नहीं कि तहसीलदार ने कलम उठाया और मनमाना निर्ख लिख कर चलता किया। वह प्रस्ताव भी मंजूर हुआ।

माया– मैं इन सफलताओं पर तुम्हें बधाई देता हूँ।

बलराज– यह सब आपका अकबाल है। यहाँ पहले कोई अखबार का नाम भी न जानता था। अब कई अच्छे-अच्छे पत्र भी आते हैं। सवेरे आपको अपना वाचनालय दिखलाऊँगा। गाँव के लोग यथायोग्य १ रुपए, २ रुपए मासिक चंदा देते हैं, नहीं तो पहले हम लोग मिल कर पत्र माँगते थे तो सारा गाँव बिदकता था। जब कोई अफसर दौरे पर आता, कारिन्दा साहब चट उससे मेरी शिकायत करते। अब आपकी दया से गाँव में रामराज है। आपको किसी दूसरे गाँव में पूसा और मूजफ्फरपुर का गेहूँ न दिखायी देगा। हम लोगों ने अबकी मिल कर दोनों कोनों से बीज मँगवाये और डेवढ़ी पैदावार होने की पूरी आशा है। पहले यहाँ डर के मारे कोई कपास बोता ही न था। मैंने अबकी मालवा और नागपुर से बीज मँगवाये और गाँव में बाँट दिये। खूब कपास हुई। यह सब काम गरीब असामियों के मान के नहीं हैं जिनको पेट भर भोजन नहीं मिलता, सारी पैदावार लगान और महाजन के भेंट हो जाती है।

यह बातें करते-करते भोजन का समय आ पहुँचा। लोग भोजन करने गये। मायाशंकर ने भी पूरियाँ दूध में मलकर खायीं, दूध पिया और फिर लेटे। थोड़ी देर में लोग खा-पीकर आ गये। गाने-बजाने की ठहरी। कल्लू ने गाया। कादिर खाँ ने दो-तीन पद सुनाये। रामायण का पाठ हुआ। सुखदास ने कबीर-पन्थी भजन सुनाये। कल्लू ने एक नकल की। दो-तीन घण्टे खूब चहल-पहल रही। माया को बड़ा आनन्द आया। उसने भी कई अच्छी चीजें सुनायीं। लोग उनके स्वर माधुर्य पर मुग्ध हो गये।

सहसा बलराज ने कहा– बाबूजी, आपने सुना नहीं? मियाँ फैजुल्ला पर जो मुकदमा चल रहा था, उसका आज फैसला सुना दिया गया। अपनी पड़ोसिन बुढ़िया के घर में घुस कर चोरी की थी। तीन साल की सजा हो गयी।

डपटसिंह ने कहा– बहुत अच्छा। सौ बेंत पड़ जाते तो और भी अच्छा होता। यह हम लोगों की आह पड़ी है।

माया– बिन्दा महाराज और कर्तार सिंह का भी कहीं पता है?

बलराज– जी हाँ, बिन्दा महाराज, तो यहीं रहते हैं। उनके निर्वाह के लिए हम लोगों ने उन्हें यहाँ का बय बना दिया है। कर्तार पुलिस में भरती हो गये।

दस बजते-बजते लोग विदा हुए। मायाशंकर ऐसे प्रसन्न थे, मानो स्वर्ग में बैठे हुए हैं।

स्वार्थ-सेवी, माया के फन्दों में फँसे हुए मनुष्यों को यह शान्ति, यह सुख, यह आनन्द, यह आत्मोल्लास कहाँ नसीब?

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